लेखनी कविता - ज़िन्दगी क्रम - बालस्वरूप राही
ज़िन्दगी क्रम / बालस्वरूप राही
जो काम किया, वह काम नहीं आएगा
इतिहास हमारा नाम नहीं दोहराएगा
जब से सुरों को बेच ख़रीदी सुविधा
तब से ही मन में बनी हुई है दुविधा
हम भी कुछ अनगढा तराश सकते थे
दो-चार साल अगर समझौता न करते ।
पहले तो हम को लगा कि हम भी कुछ हैं
अस्तित्व नहीं है मिथ्या, हम सचमुच हैं
पर अक्समात ही टूट गया वह सम्भ्रम
ज्यों बस आ जाने पर भीड़ों का संयम
हम उन काग़जी गुलाबों से शाश्वत हैं
जो खिलते कभी नहीं हैं, कभी न झरते ।
हम हो न सके जो हमें होना था
रह गए संजोते वही कि जो खोना था
यह निरुद्देश्य, यह निरानन्द जीवन-क्रम
यह स्वादहीन दिनचर्या, विफल परिश्रम
पिस गए सभी मंसूबे इस जीवन के
दफ़्तर की सीढ़ी चढ़ते और उतरते ।
चेहरे का सारा तेज निचुड़ जाता है
फ़ाइल के कोरे पन्ने भरते-भरते
हर शाम सोचते नियम तोड़ देंगे हम
यह काम आज के बाद छोड़ देंगे हम
लेकिन वह जाने कैसी है मजबूरी
जो कर देती है आना यहाँ ज़रूरी
खाली दिमाग़ में भर जाता है कूड़ा
हम नहीं भूख से, खालीपन से डरते ।